पटना, बिहार – बिहार के राजनीतिक रूप से गर्म माहौल में, जहाँ चुनाव हमेशा ही नजदीक लगते हैं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर एक ऐसा दांव खेला है जिसने राज्य के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने में हलचल मचा दी है। हाल ही में की गई घोषणाओं का सिलसिला, जिसमें एक बड़ी शिक्षक भर्ती अभियान (TRE-4) और अगले पाँच वर्षों में एक करोड़ नौकरियों का महत्वाकांक्षी लक्ष्य शामिल है, साथ ही महिलाओं के लिए आरक्षण नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव भी किया गया है। यह अब हर एक महत्वाकांक्षी युवा, हर राजनीतिक रूप से जागरूक नागरिक और निश्चित रूप से, चुनावी हवाओं को समझने की कोशिश कर रहे हर निष्पक्ष पर्यवेक्षक के लिए चर्चा का केंद्र बिंदु बन गया है।
एक निष्पक्ष बिहारी के दृष्टिकोण से, जिसने अनगिनत चुनावी वादे देखे हैं, अनुभवी राजनेता का यह कदम एक क्लासिक नीतीश कुमार की चाल है – विकास की अपील और तीक्ष्ण राजनीतिक गणना का मिश्रण। लेकिन जो बड़ा सवाल खड़ा होता है, वह यह है कि क्या यह बिहार की पुरानी बेरोजगारी को दूर करने की दिशा में एक वास्तविक कदम है या “चुनावी जुमले” का एक और मामला है जो वोट पड़ने के बाद हवा में गायब हो जाएगा।
बड़ी घोषणाएँ: आशा की किरण या सिर्फ़ आँकड़ों का खेल?
सरकार ने शिक्षक भर्ती परीक्षा (TRE-4) के चौथे चरण की घोषणा की है, जिसमें अनुमानित 1.6 लाख रिक्तियाँ हैं।1 यह पिछले भर्ती अभियानों के बाद आया है, जिन्होंने पहले ही राज्य की शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण संख्या में शिक्षकों को शामिल किया है। इससे भी बड़ा और साहसिक वादा 2030 तक एक करोड़ रोजगार के अवसर प्रदान करने का है।
युवा बेरोजगारी और बाहरी पलायन की उच्च दर से जूझ रहे राज्य के लिए, ये घोषणाएँ निस्संदेह आशा की किरण हैं। कोचिंग सेंटरों में खचाखच भीड़ और गाँवों-कस्बों में होने वाली चर्चा एक स्थिर सरकारी नौकरी के आकर्षण का प्रमाण है। हालाँकि, एक अनुभवी बिहारी पर्यवेक्षक इन आँकड़ों को संदेह की स्वस्थ खुराक के साथ ही देखता है। एक करोड़ नौकरियों का वादा, सराहनीय होते हुए भी, राज्य की आर्थिक सेहत और नौकरी सृजन में पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए इसकी व्यवहार्यता पर सवाल खड़े करता है, जो सरकारी क्षेत्र के बाहर सबसे अच्छा भी कहें तो मामूली ही रहा है।
मूल-निवासी शर्त के साथ लैंगिक कार्ड: महिला सशक्तीकरण या वोट बैंक का सुदृढ़ीकरण?
इस चुनावी पैकेज का एक महत्वपूर्ण घटक सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35% आरक्षण को केवल बिहार के मूल निवासियों (domicile) के लिए विशिष्ट बनाने का निर्णय है। यह एक महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव है। पहले, अन्य राज्यों की महिलाएँ भी इन आरक्षित सीटों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकती थीं।
सतही तौर पर, यह बिहार की महिलाओं को सशक्त बनाने के उद्देश्य से उठाया गया एक कदम है, जो उन्हें सरकारी रोजगार हासिल करने में एक स्पष्ट लाभ देता है। इसका गहरा सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ सकता है। बिहार जैसे पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला के लिए सरकारी नौकरी का मतलब अक्सर वित्तीय स्वतंत्रता, उसके और उसके परिवार के लिए बेहतर सामाजिक प्रतिष्ठा और घरेलू फैसलों में अधिक भागीदारी होता है। इसका अगली पीढ़ी की शिक्षा पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
हालाँकि, इस फैसले के राजनीतिक आधार को नजरअंदाज करना मुश्किल है। बिहार में महिलाएँ तेजी से एक मजबूत और कुछ हद तक स्वतंत्र वोटिंग ब्लॉक के रूप में उभरी हैं, जिन्हें अतीत में नीतीश कुमार को सत्ता में लाने का श्रेय अक्सर दिया जाता रहा है। इन नौकरियों को “बिहार की बेटियों” के लिए आरक्षित करके, मुख्यमंत्री इस महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय वर्ग से एक सीधी और भावनात्मक अपील कर रहे हैं।
एक निष्पक्ष पर्यवेक्षक, हालाँकि, इस लैंगिक-आधारित आरक्षण के भीतर जाति की जटिल परस्पर क्रिया को भी देखता है। 35% आरक्षण एक क्षैतिज (horizontal) कोटा है, जिसका अर्थ है कि इसे मौजूदा ऊर्ध्वाधर (vertical) (जाति-आधारित) आरक्षण श्रेणियों में वितरित किया जाएगा। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इससे सभी जाति समूहों, जिनमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBCs), अनुसूचित जाति (SCs), और अनुसूचित जनजाति (STs) शामिल हैं, की महिलाओं का समान रूप से सशक्तिकरण होगा, या फिर अधिक প্রভাবশালী उच्च और पिछड़ी जातियों की महिलाएँ इन नौकरियों का एक बड़ा हिस्सा हासिल कर लेंगी। इसका उत्तर यह निर्धारित करेगा कि क्या यह नीति वास्तव में समावेशी सामाजिक न्याय का एक उपकरण बनती है या केवल मौजूदा शक्ति संरचनाओं को मजबूत करती है।
ज़मीनी हकीकत: आकांक्षाएँ, चिंताएँ और विश्वास की कमी
बिहार के युवाओं के लिए, ये घोषणाएँ आशा और हताशा का मिलाजुला थैला हैं। एक सरकारी नौकरी की संभावना, जो राज्य में सुरक्षा और प्रतिष्ठा का अंतिम प्रतीक है, एक शक्तिशाली प्रेरक है। हालाँकि, यह आशावाद पिछले अनुभवों से फीका पड़ जाता है।
TRE-4 से पहले राज्य शिक्षक पात्रता परीक्षा (STET) आयोजित करने की माँग, जो सोशल मीडिया और युवा मंचों पर एक लगातार गूँज है, व्यवस्था में गहरे अविश्वास को उजागर करती है। कई अभ्यर्थियों को डर है कि आवश्यक पात्रता के बिना, वे भर्ती प्रक्रिया से बाहर हो जाएँगे। BPSC के नेतृत्व वाली भर्ती की पारदर्शिता को लेकर भी व्यापक चिंताएँ हैं, पिछले अभियानों में अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। पिछले पेपर लीक और घोटालों का भूत आज भी कई लोगों की आकांक्षाओं पर मंडरा रहा है।
पटना की चाय की दुकानों या गाँव की चौपालों पर होने वाली बातचीत को सुनने वाला एक निष्पक्ष पर्यवेक्षक एक आवर्ती विषय सुनेगा: “सरकार ने वैकेंसी निकाली है, ये अचानक से चुनाव के टाइम ही क्यों याद आता है?” यह निंदक भाव उन राजनीतिक वादों के लंबे इतिहास का उत्पाद है जो अक्सर अपनी भव्य घोषणाओं पर खरे नहीं उतरे हैं।
राजनीतिक शतरंज की बिसात: क्या एक मास्टरस्ट्रोक बन रहा है?
विशुद्ध राजनीतिक दृष्टिकोण से, नीतीश कुमार का कदम चतुर है। यह चुनावी विमर्श को विवादास्पद मुद्दों से हटाकर विकास और रोजगार के अधिक ठोस मुद्दे पर लाने का प्रयास करता है। यह उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी, राजद के तेजस्वी यादव को सीधी चुनौती देता है, जो बेरोजगारी के मुद्दे पर भी मुखर रहे हैं।
राजद ने, उम्मीद के मुताबिक, एक करोड़ नौकरियों के वादे को “चुनावी जुमला” करार दिया है, और सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड की ओर इशारा किया है। सत्तारूढ़ एनडीए में सहयोगी भाजपा ने इस कदम का स्वागत किया है, इसे अपनी स्थिति मजबूत करने के एक तरीके के रूप में देखते हुए।
आगामी विधानसभा चुनावों से ठीक पहले घोषणाओं का समय, चुनावी गणनाओं का एक स्पष्ट संकेत है। सरकार आचार संहिता लागू होने से पहले TRE-4 के लिए भर्ती प्रक्रिया शुरू करने के लिए समय के खिलाफ दौड़ में है।
एक निष्पक्ष बिहारी का फैसला: आशान्वित लेकिन सतर्क
अंतिम विश्लेषण में, एक निष्पक्ष बिहारी पर्यवेक्षक आशा और सतर्कता के बीच फँसा हुआ है। नौकरियों का वादा और महिला सशक्तीकरण पर ध्यान निस्संदेह सकारात्मक कदम हैं। यदि इन्हें निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से लागू किया जाता है, तो इनमें कई लोगों के जीवन में एक ठोस बदलाव लाने की क्षमता है।
हालाँकि, पिछली विफलताओं की छाया और चुनावी लोकलुभावनवाद की जानी-पहचानी गूँज बड़ी है। इन घोषणाओं की असली परीक्षा आज की सुर्खियों में नहीं, बल्कि उन वास्तविक नियुक्ति पत्रों की संख्या में होगी जो दिए जाएँगे और बिहार की अर्थव्यवस्था और समाज पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभाव में होगी।
फिलहाल, राज्य देख रहा है और इंतजार कर रहा है, इस व्यावहारिक समझ के साथ कि बिहारी राजनीति के जटिल रंगमंच में, एक मास्टरस्ट्रोक और एक छलावे के बीच की रेखा अक्सर बहुत पतली होती है। आने वाले महीने ही बताएँगे कि बिहार की राजनीतिक गाथा का यह नवीनतम अध्याय वास्तविक परिवर्तन का होगा या चुनावी वादों की पुरानी किताब का एक और पन्ना मात्र बनकर रह जाएगा।